फ्लोर टेस्ट किसे कहते हैं, और  इसकी जरूरत क्यो होती हैं, पहली बार किस सरकार को देनी पड़ी थी ये परीक्षा

मध्य प्रदेश में सियासी घमासान के बीच बीजेपी के फ्लोर टेस्ट की मांग पर सुप्रीम कोर्ट अब बुधवार को सुनवाई करेगा। इस सुनवाई के बाद साफ हो जाएगा कि मध्य प्रदेश में फ्लोर टेस्ट कब होगा? बीजेपी ये उम्मीद लगाए बैठी है कि मध्य प्रदेश में भी कर्नाटक की कहानी दोहराई जाएगी। इसके पहले कर्नाटक में भी फ्लोर टेस्ट हुआ था और बहुमत हासिल कर येदियुरप्पा इस टेस्ट को पास करने में कामयाब रहे थे। महाराष्ट्र में फ्लोर टेस्ट के सुर सुनाई दिए थे। जिसे शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली महा विकास आघाडी सरकार ने पास किया और प्रदेश में गठबंधन की सरकार बनाई। अब इसी फ्लोर टेस्ट का संकट मध्य प्रदेश की कमलनाथ सरकार पर मंडरा रहा है। लेकिन क्या आप ये जानने हैं कि सियासी गलियारों में पहली बार फ्लोर टेस्ट कब हुआ था और इस परीक्षा को किसने पास किया था।


26 साल पहले तक नहीं होता था फ्लोर टेस्ट


तो आपको बता दें कि 26 साल पहले तक सरकार बर्खास्त करने से पहले फ्लोर टेस्ट नाम की कोई भी चीज नहीं होती थी। इसकी शुरुआत हुई थी साल 1989 में, जब  कर्नाटक की बोम्मई सरकार गिरने के पांच साल बाद सुप्रीम कोर्ट ने फ्लोर टेस्ट को अनिवार्य कर दिया था।


1989 में बर्खास्त कर दी गई थी एसआर बोम्मई की सरकार


साल 1985 में कर्नाटक में 8वीं विधानसभा के लिए चुनाव हुआ था। जिसमें राज्य की 224 में से 139 सीटों पर जनता पार्टी ने जीत दर्ज की। कांग्रेस के खाते में 65 सीटें रहीं और प्रदेश में जनता पार्टी की सरकार बनी। रामकृष्ण हेगड़े को मुख्यमंत्री की कमान मिली, लेकिन फोन टैपिंग के आरोप लगने की वजह से 10 अगस्त 1988 को उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। इसके बाद एसआर बोम्मई प्रदेश के नए मुख्यमंत्री बने, लेकिन कुछ ही महीनों बाद उनकी सरकार भी गिर गई। अप्रैल 1989 को उस वक्त के राज्यपाल पी वेंकटसुबैया ने ये कहते हुए उनकी सरकार को बर्खास्त कर दिया कि उनके पास बहुमत नहीं है। हालांकि, बोम्मई बार-बार ये दावा कर रहे थे कि उनके पास बहुमत है।


 सुप्रीम कोर्ट ने फ्लोर टेस्ट किया अनिवार्य


इसके बाद ये मामला देश की सर्वोच्च न्यायालय पहुंचा। इस मामले में कई सालों तक सुनवाई चली और बोम्मई सरकार के बर्खास्त होने के पांच साल बाद सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुनाया। कोर्ट ने कहा कि इस स्थिति में फ्लोर टेस्ट ही एकमात्र बहुमत साबित करने का तरीका है। मामले में सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जिस भी स्थिति में ये संदेह हो कि सरकार या फिर मंत्रिपरिषद ने सदन का विश्वास खो दिया है, उसके लिए प्लोर टेस्ट यानी बहुमत परीक्षण ही एकमात्र तरीका है। कोर्ट ने स्पष्ट रूप से कहा कि अगर भी सरकार के पास बहुमत है या नहीं, इसका फैसला सिर्फ और सिर्फ विधानसभा में ही हो सकता है।


संविधान एक्सपर्ट्स का कहना


संविधान एक्सपर्ट्स का कहना है कि देश की आजादी के कई सालों बाद तक राज्यपाल बिना किसी बहुमत परीक्षण के सरकारों को बर्खास्त कर देते थे। उस दौर में अगर किसी सरकार पर संकट मंडराता था, तो इस स्थिति में वो विधानसभा स्पीकर या फिर राज्यपाल के सामने परेड करते थे। या फिर अपने समर्थन की चिट्ठी भेजते थे। इससे कई सारी गड़बड़ियां भी होती थीं। 1989 में भी कर्नाटक की एसआर बोम्मई की सरकार की इसी तरह बर्खास्त कर दिया गया था। सियासी इतिहास के पन्नों में ये मामला काफी चर्चित रहा है।


कितनी तरह के होते हैं फ्लोर टेस्ट


सामान्य फ्लोर टेस्ट
सामान्य फ्लोर टेस्ट तब होता है, जब कोई पार्टी या फिर गठबंधन का नेता मुख्यमंत्री बनता है। इसके लिए उसे सदन में बहुमत साबित करना होता है। अगर सरकार पर कोई संकट आता है, या फिर राज्यपाल को लगे कि सरकार सदन का विश्वास खो चुकी है, उस स्थिति में भी सामान्य फ्लोर टेस्ट होता है। इसमें सदन में मुख्यमंत्रई विश्वास प्रस्ताव लाता है और इसके बाद वोटिंग होती है। उदाहरण के तौर पर कर्नाटक के फ्लोर टेस्ट को समझिए, जुलाई 2019 में कर्नाटक में कांग्रेस-जेडीएस गठबंधन की सरकार पर संकट आया। जिसके बाद फ्लोर टेस्ट हुआ। वोटिंग के दौरान कांग्रेस-जेडीएस के पक्ष में 99 वोट पड़े, जबकि विपक्ष में 105 वोट पड़े। इस तरह कांग्रेस-जेडीएस गठबंधन की सरकार गिर गई और येदियुरप्पा ने बाजी मार दी।


कंपोजिट फ्लोर
जब एक से ज्यादा नेता सरकार बनाने का दावा करते हैं, इस स्थिति में कंपोजिट फ्लोर होता है। इसके लिए राज्यपाल विशेष सत्र बुलात हैं और फिर ये देखा जाता है कि किस नेता के पास बहुमत है। इसके बाद सदन में विधायक खड़े होकर या फिर हाथ उठाकर, ध्वनिमत से या डिविजन के माध्यम से वोट देते हैं। यहां उत्तर प्रदेश की कल्याण सिंह सरकार का उदाहरण लिया जा सकता है, जब फरवरी 1998 में यूपी में कल्याण सिंह के नेतृत्व वाली जनता पार्टी की सरकार को बर्खास्त कर दिया गया था। तब कांग्रेस के जगदंबिका पाल को मुख्यमंत्री बनाया गया था। मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा, तो कोर्ट ने 48 घंटे के अंदर कंपोजिट फ्लोर टेस्ट कराने का निर्देश दिया। 225 वोट हासिल कर कल्याण सिंह जीत गए। जगदंबिका पाल को महज 195 वोट मिले थे। सियासी इतिहास के पन्नों में ये किस्सा भी काफी चर्चित है। तब जगदंबिका पाल एक दिन के मु्ख्यमंत्री बने थे और इस किस्से को आज भी याद किया जाता है।